1970 के दशक का बॉलीवुड एक युद्धक्षेत्र था — दो अद्भुत अभिनेता, एक अदम्य निर्देशक, और एक ऐसा घटनाक्रम जिसने एक सितारे के उदय को दूसरे के अंत से जोड़ दिया। अमिताभ बच्चन को 'गुस्सैल युवा आदमी' बनाने वाला व्यक्ति था प्रकाश मेहरा, जिसने अपनी शुरुआत एक रुपये प्रतिदिन की मजदूरी से की थी। उसी दौरान, विनोद खन्ना एक ऐसे अभिनेता बन रहे थे जिनकी चाहत बच्चन के खिलाफ बढ़ती जा रही थी — न सिर्फ बॉक्स ऑफिस पर, बल्कि एक ऐसे विश्वास के साथ जो बदल नहीं सकता था।
एक रुपये से शुरू हुआ एक बादशाह का सफर
प्रकाश मेहरा की कहानी बॉलीवुड के सबसे अनोखे उत्थानों में से एक है। एक दिन के लिए एक रुपये मिलने वाले मजदूर ने अपने आप को बॉलीवुड के सबसे प्रभावशाली निर्देशकों में से एक बना लिया। उन्होंने 1973 के ज़िंदा के बाद से अमिताभ बच्चन के साथ नौ फिल्में कीं — हर फिल्म एक नए रिकॉर्ड की ओर ले गई। लेकिन इस जोड़ी की कहानी बिना विनोद खन्ना के अधूरी है।
विनोद खन्ना: एक विरोधी का उदय
विनोद खन्ना ने 1968 में मन के मीट के साथ अपना करियर शुरू किया, जहां वे मीना कुमारी के खिलाफ खलनायक के रूप में नजर आए। 1971 में मेरा गाँव मेरा देश में धर्मेंद्र के साथ अभिनय करते हुए भी उन्हें दर्शकों ने अलग तरह से पहचाना। लेकिन उनकी असली चमक 1976 में हेरा फेरी में आई — जहां उन्होंने 2.5 लाख रुपये का फीस लिया, जबकि अमिताभ बच्चन को सिर्फ 1.5 लाख मिले। उनकी बातचीत में ये बात चलती थी: एक दिन के लिए या पाँच दिन के लिए, उनका फीस तय था — 35 लाख रुपये। ये एक ऐसा निर्णय था जो उनकी स्टार पावर को दर्शाता था।
मुकद्दर का सिकंदर: जब ग्लास ने दो दोस्तों को अलग कर दिया
1978 में मुकद्दर का सिकंदर की शूटिंग के दौरान एक ऐसी घटना घटी जिसने बॉलीवुड का इतिहास बदल दिया। एक दृश्य में, अमिताभ बच्चन को विनोद खन्ना की ओर एक ग्लास फेंकना था, जिसे खन्ना को झुककर बचना था। लेकिन बच्चन ने ग्लास को बिल्कुल वैसे ही फेंक दिया जैसे वो एक गोली फेंक रहे हों। खन्ना झुक नहीं पाए। ग्लास उनकी ठुड्डी पर लगा — खून बहने लगा। 16 सिलाई की जरूरत पड़ी।
बच्चन ने तुरंत माफी मांगी। लेकिन विनोद खन्ना ने कभी भी उनके साथ काम नहीं किया। ये दूरी सिर्फ एक दुर्घटना नहीं थी — ये एक अंतिम टूट थी।
कुर्बानी और एक निर्णय जिसने बदल दिया दोनों के भाग्य
1980 में जब कुर्बानी का प्रोजेक्ट आया, तो अमिताभ बच्चन ने इसे ठुकरा दिया। विनोद खन्ना ने इसे ले लिया। फिल्म एक ब्लॉकबस्टर बनी — तीन महीने तक सिनेमाघरों में चली। इसमें फिरोज खान, ज़ीनत आमन, अमजद खान और कादर खान भी थे। लेकिन इसी बीच, विनोद खन्ना ने अपने करियर के चरम पर एक अजीब निर्णय लिया।
एक अभिनेता का आध्यात्मिक सफर, दूसरे का राजमार्ग
1979 के आसपास, विनोद खन्ना ने बॉलीवुड को छोड़ दिया और अमेरिका में ओशो राजनीश के शिष्य बन गए। उनके लिए ये एक आध्यात्मिक यात्रा थी — लेकिन बॉलीवुड के लिए ये एक बड़ा नुकसान था। जब वे 1982 में वापस आए, तो अमिताभ बच्चन का नाम अब एक जादू की तरह था: दॉन, याराना, लवारिस, मिस्टर नतवरलाल — हर फिल्म एक नया रिकॉर्ड बना रही थी।
विनोद खन्ना ने सत्यमेव जयते और दयावान जैसी फिल्मों में अच्छा काम किया, लेकिन उनकी चमक अब उसी तरह नहीं थी जैसे वो 1976 में थी।
क्रेडिट का नियम: बच्चन का नाम हमेशा पहले
जब भी दोनों एक साथ दिखे — चाहे मुकद्दर का सिकंदर हो या हेरा फेरी — बच्चन का नाम हमेशा पहले आया। निर्देशकों ने ये निर्णय लिया। शायद इसलिए कि बच्चन के नाम से बॉक्स ऑफिस बंध जाता था। विनोद खन्ना को इसका अहसास था। लेकिन उन्होंने कभी आवाज नहीं उठाई।
क्या हुआ था वास्तविकता?
विनोद खन्ना के बारे में बहुत सारी बातें अभी तक रहस्य बनी हुई हैं। उनकी आध्यात्मिक यात्रा वास्तव में क्या थी? क्या वे बच्चन के साथ काम करने से डर रहे थे? या उनके लिए ये एक चुनौती थी कि वे अपने आप को बॉलीवुड से बाहर खोजें? जवाब अभी भी अनजान हैं।
क्यों ये कहानी आज भी मायने रखती है?
आज के समय में जब अभिनेता अपने नाम के लिए ट्विटर पर लड़ते हैं, तो ये कहानी हमें याद दिलाती है कि एक बार बॉलीवुड में निर्देशकों ने अभिनेताओं को बनाया था — और एक ग्लास ने दो बड़े नामों के बीच एक अपूरणीय दरार छोड़ दी।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
प्रकाश मेहरा ने अमिताभ बच्चन को कैसे बनाया 'गुस्सैल युवा आदमी'?
प्रकाश मेहरा ने अमिताभ बच्चन को ज़िंदा (1973), अभिमान (1973), और मुकद्दर का सिकंदर (1978) जैसी फिल्मों में अपने बार-बार अपने अभिनय के जरिए एक नया चरित्र बनाया — जो अन्याय के खिलाफ गुस्सा व्यक्त करता था। ये चरित्र उस समय के युवाओं के दर्द को दर्शाता था, जिससे बच्चन एक सांस्कृतिक आइकन बन गए।
विनोद खन्ना के लिए ओशो राजनीश का असर क्या था?
विनोद खन्ना ने ओशो के आश्रम में अपने करियर के चरम पर जाकर अपना जीवन बदल दिया। इसका असर उनके अभिनय शैली पर नहीं, बल्कि उनकी उपस्थिति और बॉलीवुड में उनकी वापसी पर पड़ा। जब वे लौटे, तो बॉलीवुड का दृश्य बदल चुका था — अमिताभ का राज अब अपरिहार्य था।
क्या विनोद खन्ना ने कभी अमिताभ बच्चन के साथ फिर से काम किया?
नहीं। मुकद्दर का सिकंदर के बाद विनोद खन्ना ने कभी भी अमिताभ बच्चन के साथ काम नहीं किया। यह निर्णय उनके दिल का था — न कि बॉक्स ऑफिस का। उन्होंने बाद में कहा था कि उनके लिए फिल्म बनाना अब सिर्फ काम नहीं, जीवन था — और उस जीवन में बच्चन का स्थान नहीं था।
क्यों अमिताभ बच्चन के नाम को हमेशा पहले रखा जाता था?
निर्देशकों ने अमिताभ बच्चन के नाम को पहले रखने का फैसला बॉक्स ऑफिस रिकॉर्ड के आधार पर किया। उनके नाम से टिकट बिकने की संभावना अधिक थी। यह एक व्यावहारिक निर्णय था, जिसे विनोद खन्ना ने चुपचाप स्वीकार कर लिया — लेकिन उनके दिल में यह एक दर्द बन गया।
क्या विनोद खन्ना ने अपने करियर के बाद राजनीति में कदम रखा?
हाँ। 1990 के दशक में विनोद खन्ना ने राजनीति में कदम रखा और 2004 से 2014 तक सांसद रहे। उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की ओर से गुड़गाँव से चुनाव जीता। ये उनकी दूसरी जीवन यात्रा थी — जिसमें वे अमिताभ बच्चन के नाम के बिना भी एक बड़े नाम बन गए।
nidhi heda
नवंबर 12 2025ग्लास फेंकने वाला अमिताभ बच्चन? ओह भगवान!!! 😱 ये तो बॉलीवुड का वो दिन था जब अभिनय और जिंदगी एक हो गए... मैंने तो ये दृश्य देखकर रात भर नींद उड़ा दी! 😭💔