‘भागो-भागो!’—पहाड़ों में गूंजती ये चीखें 5 अगस्त 2025 की दोपहर को थमने का नाम नहीं ले रहीं थीं। 1:45 बजे के बाद देखते-देखते पानी, पत्थर और कीचड़ की 15 फीट ऊंची दीवार धाराली की घाटी में उतरी और जो सामने आया, वह डर का वह चेहरा था जिसे लोग जिंदगी भर नहीं भूलेंगे। उत्तरकाशी के धाराली-हर्षिल बेल्ट में ताश के पत्तों की तरह घर, होटल, दुकानें और सड़कें बिखर गईं। हर्षिल आर्मी कैंप का हिस्सा और हेलिपैड तक नहीं बचा। एक घायल जवान ने बताया—सब कुछ सामान्य था, बारिश भी खास नहीं, और कुछ ही मिनटों में ‘भागो-भागो’ की आवाजों के बीच सब कुछ बह गया।
आपदा की सुबह से शाम तक: क्या हुआ, कैसे हुआ
दिन सामान्य रफ्तार से शुरू हुआ। मौसम में हल्की ठंडक और बादलों की आवाजाही थी। बारिश के आंकड़े चौंकाते हैं—हर्षिल में 6.5 मिमी, भटवारी में 11 मिमी और उत्तरकाशी में 27 मिमी। ये आंकड़े किसी भारी बादल फटने जैसे नहीं हैं। इसलिए जब 1:45 बजे के आसपास खीर गंगा कैचमेंट से अचानक सैलाब नीचे आया, तो किसी को समझ नहीं आया कि इतना पानी आया कहां से।
धाराली गांव, जो गंगोत्री धाम के रास्ते में पड़ता है, सीधे निशाने पर था। पानी के साथ चलते बोल्डर, बहता मलबा और लकड़ियां—हर लहर के साथ गांव का एक हिस्सा गायब होता गया। बाजार की लाइनें, पार्किंग में खड़ी गाड़ियां, घाट किनारे के होटल—सब निगलते हुए धारा आगे बढ़ी। दर्जनों होटल जमींदोज हो गए, 40 से 50 से ज्यादा घर बह गए और पुलिस-राजस्व की शुरुआती रिपोर्टों में तबाही का दायरा हर घंटे बढ़ता चला गया।
हर्षिल आर्मी कैंप भी निशाने से नहीं बचा। कैंप के हिस्से और हेलिपैड पर मलबे की मार पड़ी। 11 जवान लापता बताए गए। कम से कम 5 मौतों की पुष्टि हुई, और 14 अगस्त तक स्थानीय प्रशासन और ग्रामीणों के अनुमान में 70 से ज्यादा लोगों के दबे होने की आशंका सामने आई। पहाड़ में एक-एक नाम जोड़ना भी मुश्किल हो गया, क्योंकि कई मकान पूरी तरह दफन थे और कई रास्ते टूट चुके थे।
जवानों की गवाही से तस्वीर साफ होती है। घाटी शांत थी, नदी अपने किनारों में थी। फिर ऊपर से धूल-कीचड़ का गुबार दिखा, धारा का रंग अचानक बदला और कुछ ही मिनट में 12-15 फीट ऊंची दीवार जैसी लहर गूंजी। ‘भागो-भागो’ की आवाजें हर तरफ थीं। जो जहां था, वहीं से भागा। किसी के पास कुछ समेटने का वक्त नहीं था। कई लोग ऊंचाई की तरफ भागकर अपनी जान बचा पाए, कई नहीं बच पाए।
इस दौरान राहत और बचाव की शुरुआत सेना, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ और स्थानीय प्रशासन ने साथ मिलकर की। हर्षिल के सैन्य अस्पताल में घायलों का इलाज शुरू हुआ। लेकिन आपदा की असली चुनौती थी—भूगोल। खड़ी ढलानों, संकरी घाटियों और कटे हुए रास्तों में टीमों को मौके तक पहुंचाना अपने आप में जंग थी। जहां मशीनें नहीं पहुंच सकीं, वहां हाथों से मलबा हटाना पड़ा।
यमुनोत्री हाईवे कई जगहों पर धंस गया, पुलों के एप्रोच कट गए, फोन-संकेत गायब, बिजली बाधित। ऐसी हालत में हेलीकॉप्टर मिशन भी मौसम की मार में अटकते रहे। राहत सामग्री आगे बढ़ाने के लिए छोटे-छोटे मानवीय चैन बनानी पड़ी—स्थानीय युवाओं, होमगार्ड और सेना के जवानों ने लाइन बना कर बोरे, पानी और दवाइयां पास कीं।
धाराली-बगोरी-हर्षिल की पट्टी में हजारों लोगों की रोज की जिंदगी पलट गई। जिनकी दुकानें-पोशाकें-माल भंडार थे, वे अब टेंट में हैं। जिनके खेत थे, वहां अब मलवा है। बच्चों की कॉपियां बह गईं, बुजुर्गों की दवाइयां खो गईं। कई परिवारों के पास पहचान पत्र तक नहीं बचे। स्थानीय स्कूलों और धर्मशालाओं को अस्थायी राहत शिविर बनाया गया, जहां सबसे पहले साफ पानी और शौचालय की व्यवस्था बड़ी चिंता बनी।
क्योंकि बारिश तुलनात्मक रूप से कम मापी गई थी, सवाल उठे—फिर इतना बड़ा सैलाब कैसे? वैज्ञानिकों की शुरुआती राय है कि यह ‘सिर्फ’ क्लाउडबर्स्ट नहीं था। पैटर्न उस तरह का था, जिसमें ऊपर कहीं रुक-रुक कर पानी जमा होता है, फिर अचानक बड़े ब्लॉक के साथ टूट कर नीचे आता है। यानी, संभव GLOF—ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड—या ग्लेशियर के हिस्से के ढहने से बनी विनाशकारी धारा।
ऊपरी हिमालय में अक्सर चट्टानों और बर्फ से बनी प्राकृतिक झीलें बन जाती हैं, जिनके किनारे ढीले-ढाले मलबे (मोरीन) से टिके होते हैं। अचानक बड़े बोल्डर गिरने, बर्फीले बांध के कमजोर पड़ने, या ऊपर सीमित जगह पर तेज बरसात जमा होने से ये झीलें दह जाती हैं। जब ऐसा होता है तो पानी सिर्फ बहता नहीं, अपनी साथ भारी मलबा भी बहाता है—निचले हिस्सों में पहुंचते-पहुंचते यह मिश्रण कंक्रीट कटर की तरह काम करता है। धाराली-हर्षिल की संकरी घाटी में यही हुआ—ऊपर की ऊर्जा नीचे आकर एक संकरे मुहाने में केंद्रित हो गई।
सवाल यह भी है कि अगर ऊपर की झील या बर्फ-झरना टूटा, तो क्या उसके संकेत मिल सकते थे? कई बार मिलते हैं—नदी का अचानक रंग बदलना, बहाव का शोर बढ़ना, किसी खास जगह पर भाप-सी दिखना, ऊंचाई पर टूटने की गड़गड़ाहट। लेकिन ये संकेत बहुत छोटे विंडो में आते हैं और स्थानीय समुदायों तक अलर्ट पहुंचाने के लिए मिनटों में काम करना पड़ता है। इस बार भी वक्त इतना कम था कि सैनिकों और गांववालों के पास बस भागने का विकल्प बचा।
कारण, सवाल और आगे की राह
क्लाउडबर्स्ट और GLOF में फर्क समझना जरूरी है। क्लाउडबर्स्ट आमतौर पर बहुत छोटे क्षेत्र में बहुत कम समय में 100 मिमी/घंटा या उससे ज्यादा बारिश का मामला होता है। GLOF में ऊपर बर्फ/मोरीन से रोकी गई झील अचानक फटती है। इस घटना में दर्ज बारिश के आंकड़े कम हैं और नुकसान पैटर्न ‘मलबा-समेत बहाव’ जैसा है—यही वजह है कि वैज्ञानिक GLOF या ग्लेशियर स्नाउट के टूटने की ओर इशारा कर रहे हैं।
हिमालय में तापमान बढ़ रहा है, ग्लेशियर पीछे हट रहे हैं और उनके सामने झीलें बड़ी हो रही हैं। पिछले दशक में केदारनाथ (2013), चमोली-रैनी (2021) और सिक्किम के लोनाक झील (2023) जैसी घटनाएं दिखाती हैं कि ऊंचाई पर बनी झीलें कितनी खतरनाक हो सकती हैं। फर्क बस इतना है कि हर घाटी की अपनी भूगोल और अपनी कमजोरियां होती हैं—कहीं मोड़ ज्यादा, कहीं तलछट ज्यादा, कहीं आबादी पानी के बहुत करीब बस गई है।
धाराली-हर्षिल में भी यही जोड़ी घातक बनी—नदी किनारे का तेजी से बढ़ा निर्माण, संकरी घाटी और अचानक आई ऊंची-ऊंची लहरें। 50 से ज्यादा होटल बहना सिर्फ आंकड़ा नहीं, एक सबक है कि नदी के सक्रिय बहाव क्षेत्र (एक्टिव फ्लडप्लेन) में स्थायी निर्माण किस कदर जोखिम भरा है।
राहत और बचाव पर लौटें तो टीमों ने सबसे पहले ‘सर्च-एंड-रिस्क्यू’ को प्राथमिकता दी—जीवित लोगों को निकालना, फंसे लोगों तक दवाइयां और पानी पहुंचाना, फिर रास्तों को अस्थायी तौर पर जोड़ना। इसके बाद ‘डैमेज असेसमेंट’—कितने घर, कितने व्यापार, कितनी जमीन—का काम शुरू हुआ। ऐसे मामलों में नुकसान की पूरी तस्वीर आने में हफ्ते लगते हैं, क्योंकि नदी किनारे जमा मलबा हटाने में समय लगता है और कई बार नदी का रुख भी बदला हुआ मिलता है।
अब असली काम ‘पुनर्वास’ का है—सिर्फ टेंट नहीं, स्थायी घर। जिनके दस्तावेज बह गए, उनके लिए पहचान और दावे की प्रक्रिया आसान होनी चाहिए। स्थानीय लोगों को तात्कालिक नकद मदद, राशन, स्कूल किट, बुजुर्गों की दवाइयां और गर्भवती महिलाओं की देखभाल—ये सब साथ-साथ चलना चाहिए।
आज के पहाड़ों में ‘अर्ली वार्निंग’ सिस्टम सांस जैसा है। कुछ चीजें तुरंत की जा सकती हैं:
- ऊपर की घाटियों में स्वचालित जल-मापी और रेन गेज लगें, जो रीयल-टाइम में बहाव और पानी के रंग/गंदलापन (टर्बिडिटी) का संकेत दें।
- जिन गांवों के ऊपर झीलें/आइस-डैम हैं, वहां सायरन-आधारित चेतावनी और निकासी के तय रास्ते चिन्हित हों।
- स्कूलों और बाजारों में साल में कम से कम दो मॉक-ड्रिल—‘भागने का रास्ता कौन सा?’ सभी को याद हो।
- नदी किनारे निर्माण के लिए बफर-ज़ोन और ऊंचाई की स्पष्ट गाइडलाइन—होटल/हाउसिंग अनुमति इन्हीं नियमों से बंधी हो।
- स्थानीय युवाओं को सामुदायिक आपदा प्रतिक्रिया टीम के रूप में प्रशिक्षित करना—पहली मदद, रस्सी बचाव, संचार।
ऊपर बनी झीलों का ‘इन्वेंट्री’ और ‘रिस्क रैंकिंग’ भी जरूरी है—कौन सी झील कितनी बड़ी, उसका किनारा किस तरह का, उसके नीचे कौन-कौन से गांव/सड़के हैं। जहां जोखिम ज्यादा दिखे, वहां ‘कंट्रोल्ड ड्रेनेज’ यानी झील के सुरक्षित निकास की इंजीनियरिंग पर काम हो सकता है। यह आसान नहीं, लेकिन आज नहीं तो कल यह करना पड़ेगा।
बचाव में लगी एजेंसियों के लिए भी सबक हैं—मलबा-प्रवण इलाकों में छोटी-चौड़ी सड़कों के विकल्प पहले से चिन्हित रहें; भारी मशीनें और ईंधन की ‘फॉरवर्ड स्टॉकिंग’ सीजन शुरू होने से पहले हो; आपदा के समय एकीकृत कमांड और एक ही सूचना स्रोत से अपडेट दिए जाएं ताकि अफवाहें न फैलें।
आज सबसे बड़ी चिंता आजीविका है। धाराली और आसपास के गांव पर्यटन और बागवानी पर जीते हैं—होटल-होमस्टे, दुकानों के साथ सेब के बगीचे। सैलाब ने खेतों में मोटी परत का मलबा छोड़ा है, जिसे हटाने में महीनों लगते हैं। ऐसे में छोटे व्यापारियों और किसानों के लिए ब्याज में रियायत, ऋण पुनर्संरचना, उपकरणों की सब्सिडी और श्रम-आधारित स्थानीय काम (जैसे मलबा हटाना, नदी तट की मरम्मत) रोजी-रोटी का पुल बन सकते हैं।
मानसिक स्वास्थ्य की बात अक्सर छूट जाती है। जिन परिवारों ने अपने लोगों को खोया, जो बच्चों ने पानी की दीवार देखी, जो जवान मौके पर थे—सबको काउंसलिंग चाहिए। स्कूलों में सरल भाषा में ‘क्या हुआ और क्यों’ समझाना बच्चों के डर को तोड़ता है। आपदा के बाद यह उतना ही जरूरी है जितना कि राशन और दवाइयां।
नदी-घाटी की नई मैपिंग भी जरूरी है। सैलाब के बाद नदी ने कई जगह अपना रास्ता बदला होगा। जहां पहले सुरक्षित जमीन मानी जाती थी, वहां अब खतरा हो सकता है। इसलिए ‘रिवर-कॉरिडोर’ की फिर से पहचान और उसके भीतर स्थायी निर्माण पर रोक—यह कड़े फैसले मांगता है, लेकिन lives and livelihoods दोनों की सुरक्षा इसी में है।
इस घटना ने एक और सच्चाई उजागर की—पहाड़ में सुरक्षा सिर्फ ढांचों से नहीं आती, व्यवहार से भी आती है। होटल या घर नदी से जितना दूर, उतना सुरक्षित। कार को नदी-किनारे रातभर पार्क करना आसान हो सकता है, लेकिन आपदा में वही सबसे पहले जाता है। स्थानीय प्रशासन के ‘डू-एंड-डोन्ट्स’ बोर्ड, सैलानी गाइड और टूर ऑपरेटरों का प्रशिक्षण—ये छोटे कदम बड़े फर्क लाते हैं।
पिछले अनुभव बताते हैं कि आपदा के कुछ हफ्तों बाद ध्यान ढीला पड़ता है। फोकस तब भी बना रहे, जब कैमरे हट जाएं। जांच को समयबद्ध करें—ऊपर क्या टूटा, कब टूटा, किस चेतावनी के संकेत चूके—ताकि अगली घाटी में वही गलती न दोहराई जाए।
धाराली की वो दोपहर अब इतिहास है, लेकिन पहाड़ों का कैलेंडर लंबा है। अगले मानसून, अगली बर्फ, अगली गर्मी—हर मौसम एक परीक्षा है। इस परीक्षा को पास करने का रास्ता साफ है—बेहतर निगरानी, समझदारी से बसावट, तेज बचाव और लोगों को साथ लेकर चलने की नीति। चोट गहरी है, लेकिन पहाड़ों की सीख भी उतनी ही साफ है—तैयारी ही सुरक्षा है।
vishal jaiswal
सितंबर 17 2025सैलाब में शामिल विभिन्न एजेंसियों के समन्वयात्मक प्रोटोकॉल की प्रभावशीलता को आंकते हुए, हम देख सकते हैं कि इंटीग्रेटेड कमांड एंड कंट्रोल (ICCC) फ़्रेमवर्क ने ऑपरेशनल सिंक्रोनाइज़ेशन को सुदृढ़ किया। इससे रेस्क्यू टीमें जलमार्ग और पहाड़ी बाधाओं के बीच तेज़ी से नेविगेट कर सकीं। डेटा‑ड्रिवेन डिस्पैचिंग ने संसाधनों का अलोकेशन अनुकूलित किया। भविष्य में इस मॉडल को रिवर‑बेस्ड डिसास्टर मैनेजमेंट में व्यापक रूप से लागू किया जा सकता है।