जब राजनीतिक ताकतें एक या दो परिवारों के हाथ में टिक जाती हैं, तब उसे वंशवादी राजनीति कहा जाता है। यह सिर्फ नाम पत्र पर बैठने की बात नहीं है—यह पदों का हस्तांतरण, नेटवर्क, संसाधनों का केंद्रीकरण और पार्टी के अंदर कम प्रतिस्पर्धा से जुड़ा एक पैटर्न है। आपने देखा होगा कि कई बार किसी क्षेत्र में एक ही परिवार वर्षों तक सांसद, विधायक या मंत्री देता रहा—ये वही संकेत हैं।
यह समस्या सिर्फ व्यक्तिगत पसंद का नहीं है। जब निर्णय कुछ परिवारों तक सीमित रह जाते हैं, तो पारदर्शिता कम होती है, नई प्रतिभाओं के आने के रास्ते बंद हो जाते हैं और नीति‑निर्माण में विविधता घटती है। सवाल यह है: हम इसे कैसे समझें और क्या कर सकते हैं?
पहला संकेत नाम‑परक उम्मीदवार: पार्टी बार‑बार रिश्तेदारों को टिकट देती है। दूसरा, अनुभव पर भरोसे की कमी: कई बार सियासी अनुभव कम होने पर भी बाहरी समर्थन से ही शीर्ष पद मिल जाते हैं। तीसरा, संसाधन और प्रचार का असमान वितरण—एक परिवार के पास धन और मीडिया कनेक्शन हों तो विरोधियों का काम मुश्किल होता है। चौथा, पार्टी में भीतर से चुनने की जगह ऊपर से थोपे गए निर्णय।
आप वोटर के रूप में क्या कर सकते हैं? नीचे आसान काम हैं जो तुरंत आजमाए जा सकते हैं:
इन सरल सवालों से आप असल में यह जान सकते हैं कि कोई नेता वंश या क्षमता पर टिके हैं।
संस्थागत उपाय भी जरूरी हैं—अंदरूनी लोकतंत्र, पारदर्शी टिकटिंग नीति, और स्पॉन्सरशिप पर सीमा जैसे कदम असर डालते हैं। मीडिया और नागरिक समाज का रोल बड़ा है: शोध, रिपोर्ट और लोक चर्चा वंशवाद को उजागर कर सकती है।
यह सब काम आसान नहीं है, पर छोटे‑छोटे कदम असर दिखाते हैं। हर वोटर की एक छोटी सी जिज्ञासा—कौन, क्यों और कैसे चुना गया—बदलाव की शुरुआत हो सकती है। अगली बार चुनावी चर्चा में जब कोई नाम सुनें, तो सिर्फ नाम नहीं देखें; उससे जुड़े सवाल पूछें। इससे लोकतंत्र और जवाबदेही दोनों मजबूत होंगे।
भाजपा ने प्रियंका गांधी वाड्रा के वायनाड़ से नामांकन को वंशवादी राजनीति की जीत बताया है। भाजपा प्रवक्ता गौरव भाटिया ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का अपमान होने की बात कही और प्रियंका के शपथ पत्र में संपत्ति की गलत जानकारी देने का आरोप लगाया। उन्होंने गाँधी परिवार पर वंशवाद की राजनीति का अभ्यास करने का आरोप भी लगाया।