विनोद खन्ना एक अभिनेता, भारतीय सिनेमा के एक ऐसे चरित्र जिन्होंने अपनी आवाज़, दिखावे और अहंकार रहित उपस्थिति से एक नई परिभाषा बनाई थे, जिन्होंने अपने जीवन के बीच में ही फिल्मों से राजनीति तक का कदम रखा। उन्हें बॉलीवुड का प्रतिष्ठित नाम, 1970-80 के दशक में एक्शन और ड्रामा के लिए पहचाने जाने वाले अभिनेता, जिन्होंने बहुत सारी फिल्मों में अहंकार और आदर्शवाद का संगम किया कहा जाता था। उनकी फिल्में न सिर्फ बॉक्स ऑफिस पर हिट हुईं, बल्कि उनका अंदाज़ भी एक नया स्टैंडर्ड बन गया।
विनोद खन्ना के जीवन में दो बड़े पहलू थे — एक तो वो जो बॉलीवुड में दिखाई देते थे, और दूसरा वो जो लोकसभा में बोलते थे। राजनीति, एक ऐसा क्षेत्र जहाँ उन्होंने अपने अभिनय के बाद भी लोगों की आवाज़ बनने का फैसला किया उनके लिए बस एक नया मंच था। वो भारतीय जनता पार्टी के साथ जुड़े, और 1991 से 2009 तक दो बार लोकसभा के सदस्य रहे। उनकी राजनीतिक भाषा भी उनकी फिल्मों जैसी ही थी — सीधी, ज़ोरदार और दिल को छू जाने वाली। उनके बारे में लोग कहते थे कि वो जो भी करते थे, वो अपने दिल से करते थे।
उनकी फिल्में आज भी याद की जाती हैं — सर्दी के दिन, गुलाम, शत्रु, बाज़ी। उनकी आवाज़ और आँखों में एक ऐसी गहराई थी जो कम ही अभिनेता पाते हैं। वो बिना बोले भी बात कर सकते थे। उनकी अदाकारी ने दर्शकों को ये महसूस कराया कि एक आदमी के अंदर कितनी भावनाएँ छिपी हो सकती हैं। उनके बाद भी बॉलीवुड में कोई ऐसा नाम नहीं बना जिसने इतनी गहराई से दोनों दुनियाओं को जोड़ा हो।
आज जब भी कोई फिल्म में एक अच्छा विलेन या एक गंभीर नेता दिखता है, तो लोग उसे विनोद खन्ना के अंदाज़ से तुलना करते हैं। उनकी विरासत बस फिल्मों तक ही सीमित नहीं है — वो एक अंदाज़ हैं, एक अहंकार रहित शक्ति हैं, एक ऐसा इंसान जिसने अपने करियर के बीच में ही अपनी आत्मा को दर्शकों और देश दोनों के लिए समर्पित कर दिया।
इस पेज पर आपको विनोद खन्ना से जुड़ी खबरें, उनकी फिल्मों के बारे में रिव्यू, उनके राजनीतिक जीवन के विश्लेषण, और उनके बारे में अनकही कहानियाँ मिलेंगी। ये सब एक ऐसे व्यक्ति के बारे में है जिसने बॉलीवुड को अपना नाम दिया, और देश को अपना विचार।
1970 के दशक में अमिताभ बच्चन और विनोद खन्ना के बीच बॉलीवुड की सबसे तीव्र प्रतिस्पर्धा थी, जिसे प्रकाश मेहरा की निर्देशन और एक ग्लास के घटनाक्रम ने अपरिवर्तनीय बना दिया।